सोमवार की सुबह / सुशान्त सुप्रिय

सोमवार की सुबह
खीझे हुए देवताओं को भी
निकलना पड़ता है
अपना आराम और
भोग-विलास तज कर

इस सुबह
दीवार-घड़ी भी घबरा कर
किसी बेक़ाबू घोड़े-सी
तेज़ भागने लगती है

रविवार की रौनक़ के बाद
फूल और घास भी
उदास हो जाते हैं
इस सुबह

नाश्ते की प्लेट
एक गम्भीर मुद्रा
ओढ़ लेती है इस सुबह
घर की हड़बड़ी देख कर

आवारगी छोड़ कर बँधना पड़ता है
हर पहिये को इस सुबह
एक घुटने भरे अनुशासन में
शहर की भीड़ भरी सड़क पर

कुत्ता भी डरता है
इस सुबह
सड़क पार करने से
बदहवास भागते वाहनों को देख कर

धरती की जकड़ी हुई सुबह होती है यह
आकाश के खुले सप्ताहांत के बाद

इस सुबह व्यस्तता
हमें दबोच लेती है गर्दन से
और हम छटपटाने लगते हैं
गहरे पानी में गिर गए चींटे-असहाय

हम चाहते हैं अपने भीतर शिद्दत से
बस इतना जीवन कि
जूझ सकें एक लम्बे सप्ताह की
शुष्कता से हर पल

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