कष्ट भोगती आँखों में निरपराध चमक
उन्मुक्त हँसी के साथ प्रत्यक्ष हस्तक्षेप
समय बेहिसाब कि बेइंतहा खर्च
जेब में पड़े अकेले पाँच रूप्पये की ठसक
इतना समीप कि सोमवार में सातों दिन
ये दिन चुरा लिया गया
ये हँसी छीन ली गई
क्रोध, निरपराध चमक, जेब में एक कंगाल की ठसक
सब उठा ले गया कोई
आँखें बोलने लगीं इतर भाषा
कहीं छूटता चला आदिम व्यवहार
झुठला सकती हैं ये आँखें नेह
चुरा सकती हैं प्रच्छन्न रंग
उड़ सकती हैं इतनी ऊपर कि
मनुष्य दिखाई दे एक अस्पष्ट बिंब की तरह
इन आँखों का अपना सच
भूल चुकीं पुराने दिवस, अवसाद का आत्मीय दुक्ख-सुख
इससे तो बेहतर था जन्मांध होता
सुनता, समय गुनता
ध्वनि पर मुड़कर, ध्वनि से जुड़कर, जुड़ता तो पूरा जुड़ता