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सोलह / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

दिन ढले, कितनी जवानी ढल गई
क्या कहूँ सच आँख से कितनी कहानी ढल गई

प्रेम के अनुताप में क्या-क्या मिलाप दर्द-दाहक वेदना
चुपचाप आँखों से निकल कर बह गई, मधुर दिन की कामना
स्वप्न का संसार आँसू से निकल कर
छा गया अग-जग मनोहर गीत बन कर

गीत की कड़ियाँ मुझे झकझोरती हैं
हाय! दिल की चीज दिल को तोड़ती है
अब न गाऊँगा सुनो बस!
गीत में सारी कहानी ढल गई

कल मिली थी, आज होती
तो हमारी स्वच्छ-उजली रात होती
रात के हर पौर पर मैं नींद को उकसा न रोता
हाथ-पर धर हाथ तेरे, खूब गहरी नींद सोता।

जिंदगी में रात काली बस गई
चाँदनी भी गल गई
दिन ढल कितनी जवानी ढल गई