एहि दीनदासक दीन मिनती श्रवण करु भगवान हे!
देश उन्नतिशील हो झट मूर्खता हो म्लान हे।
नहि विलासक चाह हमरा नहि प्रमोदक भावना,
राज-पाटक लोभ नहि किछु नहि चहै छी मान हे।
विभवसँ हो पूर्ण मिथिला, शक्तिसँ हो संयुता
धर्म-पथमे हो निरत पुनि हो श्रुतिक कलगान हे।
बिसरि कै सब द्वेष-ईर्ष्या भ्रातृनेह निबद्ध हो,
देश ओ गुरुजनक कारा तुच्छ बूझय प्राण हे।
त्यागि नीच परावलम्बन, स्वावलम्बन युक्त हो,
बहु-विवाहक नाम सुनि नर मुनथि दूनू कान हे।
सर्वत्र हो विद्या प्रचारित, कला-कौशल युक्त हो,
हो सभक उर-क्षेत्रमें प्रभु! अंकुरित विज्ञान हे।
सब देशमे सब ठाममे खलु हो प्रचार स्वतन्त्रता,
प्राप्त सबकेँ स्वत्व निज हो, खलक हो अवसान हे।
फोलि आबहु आँखि कृपया एम्हर ताकू हे हरे!
करु मनोरथ पूर्ण छेदिक, तव धरै छथि ध्यान हे।