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सो गया हूँ / ओम पुरोहित ‘कागद’

ओ कवि!
तुम ने ही तो कहा था
रेशम का गदरा है
यह मरुधरा।
इस पर देव
रमने आते है
सुरगों को भी सरमाती है
यह हेमाणी धरा।
इसी कथन के वशीभूत
यदि मै
सो गया हूं
समय को सरहाने रख
तो तूं क्यों कोसता है
मुझ अकाल को
मुझे भी करने दे आराम
सुस्ताने दे
कुछ दिन
सुबह शाम
इस मनभावन मरुधरा पर।