छल रहे कुछ
स्वप्न जिसको
नींद की चादर तले,
सो नहीं
पाया मुंगेरी
जागता ही रह गया।।
तोड़ सीमाएँ
विनय की
खूँटियों पर द्वंद्व लटके,
पालकर विग्रह
नियम के
नेह ने फिर पैर पटके,
कामनाओं की
नुकीली
सूईयों से अर्थ लेकर,
देह के
पैबन्द चुपके
टाँकता ही रह गया।।
घोर आलोचक
समय का
सुर्ख़ियों में आजकल है
युग मशीनों का
हुआ जब
भूख की बातें विफल हैं,
यन्त्रणाएँ
आँत का ही
आकलन करती रही फिर,
रातभर
विषपान का दुख
टीसता ही रह गया।।