(कविता एक वैज्ञानिक की)
कभी कचरे के ढेर में,
कागज का टुकड़ा, सूखी डबलरोटी
और सब्जी का छिलका
खोजा है तुमने ?
तुम भला क्या समझोगे
आर्किमिडीज का उल्लास,
’यूरेका’ का अर्थ.
कभी कुत्ते से छीनकर
खाया है रोटी का टुकड़ा ?
तुम भला क्या जानो
युद्ध की विभीषिका
और शान्ति का सुकून.
कभी नाले के किनारे,
खुले आसमान तले,
सड़ांध से बेखबर,
भद्र लोगों के थूक से भरे
फुटपाथ पर,
कुत्तों और कीड़ों-मकोड़ों के साथ,
शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व स्वीकार
सोये हो ?
तुम भला क्या जानो,
लोरी की मिठास, नींद की राहत.
तुम भला कैसे जानोगे
परम्पराओं का अर्थ,
कभी पुरखों से पुश्त दर पुश्त मिली
दरिद्रता का अभिशाप भोगा है ?
कभी खाँसी से जर्जर,
शाश्वत रुग्णा,
जुओं के मारे सिर खुजाती,
मैले कुचैले चीथड़ों में लिपटी,
औरत से प्यार किया है ?
तुम भला कैसे जानोगे कि
’शिखरिदशना पक्वबिम्बाधरोष्ठि’
नारी कितनी मोहिनी होती है !
कभी बेबसी का आर्त्तनाद सुना है ?
कभी सुना है, भूखी आँतों का
मूक और करुण क्रंदन ?
राग जैजेवंती और
ठुमरी का आलाप
बूझने की तुम्हारी काबिलियत कहाँ !
कभी तुम्हारी आँखों का तारा
भूख से बिलबिलाता
और तुम उसे झूठे
झूठे आश्वासनों के सिवा
कुछ भी न दे पाते,
तब कहीं समझ पाते तुम
वात्सल्य का माधुर्य !
कभी टीन के पत्तरों,
पत्थर के टुकड़ों, बोरों और
पॉलिथीन के थैलों से
बनाते झोपड़ी,
तब आँक पाते तुम
ताजमहल की भव्यता.
इत्मीनान से टाँगें पसार,
बीयर और सिगरेट पीते हुए
समाजवाद की मीमांसा,
कुंठा और संत्रास का
डॉगमैटाइज़ेशन
बहुत आसान है दोस्त.
कभी तूफानी रात,
चौकीदार की गालियाँ
झेलते हुए,
अमीरों के बरामदे में गुजारते,
तब समझ पाते तुम,
वीभत्स विषमता की कड़ुआहट.
कभी अपमान और तिरस्कार का
कटु गद्य पढ़ लेना बन्धु !
तब समझ पाओगे,
प्रेम का काव्य, सौन्दर्य का गान ।
(रचना काल, १९७५-जनवरी १९७७:: प्रकाशित, विश्वामित्र, १०.६.१९७९)