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सौन्दर्य-चेतना / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

होता रहता अनवरत सृष्टि के सम्मोहनमय प्रांगण में,
ध्वनियों की लहरों का लहरों पर आवर्त्तन!
भूमण्डल में, दिग्मण्डल में, सागर-तल में-
बनते मिटते रहते गहरे हल्के रंगों के चित्रलेख!
आती रहतीं स्वर्णिम किरणें लेकर प्रकाश के अरुण सुमन!
करने तन्द्रा का तम भ´्जन-नव जीवन का सन्देश वहन!
भू की अन्तवीर्ण में करने अरुणोदय का राम सृजन!

मेघों की केशराशि से आवृत गगनांगन,
तरुओं की वन्दनमालाओं से मण्डित धरणी का प्रांगण,
जो रोमा´्चित दूर्वानलों से, -लतादाम जिसका मण्डन!
मोती की लड़ियों के समान झरते झरने जिस पर झर-झर!
दीपित प्रसून के दीपों से ध्वनि-नन्दित वन-उपवन-पर्वत!
करते मेरे अन्तर्पट पर निज सुन्दरता के हस्ताक्षर!
देते मुझको गीतों, छन्दों, रंगों, भंगों गन्धों के स्वर!

जो उमड़-घुमड़ कर बरस रहे आनन्द-प्रेरणा के घन-गन,
भर देते मेरे मन-सर में जीवन के मादन मधु-रस-कण।
नभ-जल-थल में झंकृत ऋतुओं की छन्दमयी स्वर-लहरी से-
भर जाते मेरी वंशी के रन्ध्रों में रागों के गु´्जन!
मनमोहक इन्द्रधनुष के रंगों-विम्बों के संयोजन में,
शाखा-शाखा पर सजे पंक्ति में पर्णांगों के गुम्फन में,
गिरि-शृंगों से गिरती बहती सरिताओं के गुरु-गर्जन में,
सुनता मैं ध्याननिरत रह कर सौन्दर्य-नियन्ता का गायन!

मैं हो जाया करता विमुग्ध सौन्दर्य-सुरा से उन्मादन!
मैं स्वयं सृष्टि के अरुणोदय की आकांक्षा का अभिव्यंजन!
जब कर देता लावण्यमयी मुग्धा या तरुणी का यौवन-
निज आकर्षण के लहर-ज्वार से मेरे मन में आन्दोलन!
तब हो जाते उसमें मुझको अपनी ही सुषमा के दर्शन!
मिलते मुझको उसमें अनन्त की दिव्य विभा के चित्रांकन!

मेरे विचार-दर्शन चिन्तन, मेरी वाणी के अभिव्यंजन!
करते मेरे आनन पर अपनी रेखाओं के आलेखन!
सन्तुलनरहित, खण्डित, कलुषित, संकुचित विचारों के कारण,
बन जाता निर्मल-से-निर्मल मुख का दर्पण भी दुर्दर्शन!
होता सत-चित-सुन्दर से ही रज के कण-कण में प्राण-स्फुरण!
जीवन के दुर्गम मरु-मग में स्वर्गिक सुषमा का सुधा-क्षरण!

(22 सिम्बर, 1973)