सुनो!
कुछ स्त्रियों ने रोपा है बीज हंसी का,
उदासी की खाद में अश्कों की नमी मिला
गाड़ दिया है धरती में सदा के लिए।
खुलकर हंसने के लिए उन्होंने
चुना है यह रास्ता
क्योंकि रोना मना है उन्हें।
उनके उदास चेहरे से उदास हो जाता है घर, घर की दीवारें तक।
चुप्पी, मौन जो असहनीय हो जाता है भारी कर जाता है मन।
इसलिए रो नहीं सकती कुछ स्त्रियाँ।
कुछ स्त्रियों ने रोंपे हैं कांटे भी
जो चुभते रहते हैं हर किसी को,
घाव दे जाते हैं अक्सर जो
पर दुखी नहीं है ऐसी स्त्रियाँ
अट्ठाहास कर छीन लेती चैन और सुकून सभी का।
तीखे तंज, ज़हर बुझे शब्दों की बौछार
यही है इनका हथियार।
कुछ मूर्ति सदृश्य!
परिस्थितियों ने मूक कर दिया है जिन्हें
नहीं दिखाना चाहती जो मन के घाव
छुपाये रखती हैं सबसे।
स्वचालित कठपुतली बन घूमती रहती हैं घर में
यहाँ वहाँ काम निपटाते रोबोट की तरह।
ऐसी स्त्रियों में संवेदनाएँ है नहीं
या मर गई है?
किसी हद तक!
कुछ स्त्रियाँ काठ की तरह होती है,
बाहर से शांत अंदर से सुलगती चिंता जैसी।
पहले ख़ुद जलती हैं
जब असहनीय हो जाती है जलन
तो आग बन बरस उठती हैं।
जैसे अंगीठी में कोयले सुलगते-सुलगते
धीरे-धीरे आग पकड़ते हैं।
फिर इस क़दर आग
कि सिर्फ़ एक तंज
और धधकते ज्वालामुखी की तरह उलट देती हैं लावा बाहर।
और कुछ
इंद्रधनुषी रंग आंखों में समाए
बुनती रहती हैं ताना-बाना, अपने प्रयासों और उड़ानों का।
अपनी उदासियों को बदल देती है रंगों में,
हार को जीत मे,
ऐसी स्त्रियाँ आख़िर चुन ही लेती हैं एकदिनअपना पसंदीदा आसमां।