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स्त्रीगत / लालसिंह दिल / सत्यपाल सहगल

शीशम की शाखाओं के साथ
लटकती, लोगड़ में से निकली हुई
एक नरम-सी बाँह
ऐसे लगता है जैसे
ज़मीन पकड़ना चाह रही हो
ऐसे हाथ फैला हुआ।

चील के पंजे से गिरा हुआ
एक मानव लोथड़ा
जैसे जंग लगी कोई चीज़
तालाब के किनारे यह कबीर की तरह
जीता नहीं
न यह टैगोर की तरह
माँ-बाप की सत्तरहवीं सन्तान होगा।

उसके विराट औ' अलौकिक रूप से
लगता है
वह ज़रूर कोई लड़की है।

मूल पंजाबी से अनुवाद : सत्यपाल सहगल