Last modified on 16 अक्टूबर 2015, at 03:31

स्त्री-विमर्श / नीलेश रघुवंशी

मिल जानी चाहिए अब मुक्ति स्त्रियों को
आखिर कब तक विमर्श में रहेगी मुक्ति
बननी चाहिए एक सड़क, चलें जिस पर सिर्फ स्त्रियां ही
मेले और हाट-बाज़ार भी अलग
किताबें अलग, अलग हों गाथाएं
इतिहास तो पक्के तौर पर अलग
खिड़कियां हों अलग
झांके कभी स्त्री तो दिखे सिर्फ स्त्री ही
हो सके तो बारिश भी हो अलग
लेकिन
परदे की ओट से झांकती जो स्त्री
तुम-
खेत-खलिहान और अटारी को संवारों अभी
कामवाली बाई, कान मत दो बातों पर हमारी
बुहारो ठीक से, चमकाओ बर्तन
सिर पर तगाड़ी लिए दसवें माले की ओर जाती
जो कामगार स्त्री
देखती हो कभी आसमान, कभी जमीन
निपटाओ बखूबी अपने सारे कामकाज
होने दो मुक्त अभी समृद्ध संसार की औरतों को
फिलहाल संभव नहीं मुक्ति सबकी!