सिलाई-बुनाई-बुहारी-कटका से मन का ध्यान बंटा रहता है
तो स्त्रियों तुम इन्हीं में ध्यान लगाओ
रसोई की मिली-जुली गंध में भूल जाओ
पिछली रात मिली लातों की दोहरी मार को
पेट की ऐंठन को
पेट में ही निपटा लो
तुम्हारे भीतर जितने भी कब्रगाह हैं
इस पर कायदे से मोटा पर्दा रखो
याद हैं ना तुम्हें वे दिन
जब तुम्हारे सामने बोलने पर पिता ने गुस्से में उबलते हुए कहा था
"गलती की तुझे पढ़ा-लिखा कर ढोर-डंगर चलवाने थे तुझसे'
और वह ताना जो पति रोज़ दिया करता है
" पहले ही दिन से तुझे अपनी जूती के नीचे रखना था"
और बेटा भी जो अक्सर कहता आया है
"माँ, पिता का कहा माना करो"
जिस्म में केंचुलियाँ के ढेर
दिन-रात ना बुझने वाली शमशानी आग
है तुम्हारे आजू -बाजू
फिर भी तुम इतनी शांत
ज़मीन को अंगूठे से कुरेदती हुयी
संकुचित
स्त्री आखिर तुम बला क्या हो?
खैर
तुम जो हो सो हो लेकिन समय रहते
ऊपर दर्ज इस स्त्री- आचार- संहिता को अच्छे से रट लो