प्रेम से भरा था स्त्री का मन
मन के अँधेरे कोनों में
जुगनू सी चमकती थी कविताएँ
जिन्हें पकड़ सहेज देती वो कलम से
छोटी-छोटी पर्चियों में
कभी तकिये के नीचे
कभी डायरी में
कभी रसोई में मसालों के डिब्बों के नीचे
कभी किसी किताब के बीच
पुरुष के मन में वहम का हिंडोला था
वो नहीं आँक पाया स्वयं को
इस निश्छल प्रेम का पात्र
शक की सुई से बिंधा मन
रेगिस्तान बन गया
उठते रहे आँधियों के बवंडर
ठंडेपन की बर्फ़ से छिपाता रहा
कलुषता मन की
नहीं पौंछ पाया मन का आइना
सहजता की रुमाल से
स्त्री फिर भी उम्मीद का सूरज उगाती रही
टूटे नुचे पंखों से दोहराती रही
उड़ने का अभ्यास
उसने अंधेरों को उजालों में बदला
वो नदी सी बहती रही
सांस-सांस हवा में घुलती रही
जीवन के लिबास पर लगे अवसाद के बदरंग धब्बे
आँसुओं से धोती रही
दुःस्वप्नों के जाल में फँसे दिनों को आज़ाद करती स्त्री ने
नहीं छोड़ा स्वप्न देखना
नहीं छोड़ा कविता लिखना