टपकूं तेरे विभा क्षीर को
बनकर स्वाति सीप
ब्रह्म विश्रांति की चारू शिल्पी
विजन धार में जलता दीप
नीरद नयन नलिनी सा मुख
लुभा न पाता यह स्नेहिल मन
मंद हेमंत का पवन निरंतर
कलुषित करता मेरा अर्पण
सही न जाती व्याल दृष्टि से
तेरी यह दुत्कार
पाषाण बनीं क्यूँ अरी
प्रेयसी क्या यह स्नेह असार?
अंतर्तम में स्वांग नहीं
न किया कभी कीर किल्लोल
मनःज्वाल चुभ बैठा मन में
किसे कहा तू बोल?
दृग आनन पर मत इठलाना
गेह गेह सौंदर्य भरे
शिशिर तुहिन तीर मुरझाई
वसंत ममुख गेंदा प्रसून मरे
मैं नहीं कहता करो समर्पित
अर्चिस आभा या अंतर्मन
स्वीकार करो सजल ह्रदय से
अमल कृष का स्नेह निमंत्रण