(स्व. दिवाकर को)
तुम्हारी याद के बादल
सघन गहरा रहे आकर।
सहज संवेद्य शिष्टाचार
निर्मल आचरण पावन
सभी के
एक तुम ही तो रहे
अपनत्व के भाजन
मिले अक्सर किताबों में
तुम्हारे स्नेह के आखर।
मिली रत्नावली तो
मिल गया सत् पंथ तुलसी को
तुम्हें पाकर मिला सौभाग्य
फिर से
एक हुलसी को
नयी युग-चेतना की
भूमिका
करते रहे उर्वर
जगाया सूर्य-पुत्रों को
प्रभाती गा रहे थे तुम
दिशाएँ महकती थीं
गन्ध मादन ला रहे थे तुम
बहाए
शंख-धर्मी गीत के
आलोक मय निर्झर
रहे तुम देह से मथुरा
बसा था प्राण वृन्दावन
किया नवगीत-मन्त्रित
स्नेह-प्लावित शक्ति-आराधन
बुलाते हैं हमें अब भी
तुम्हारी बाँसुरी के स्वर।
30.4.2017