ज़रा ढील दो, अपने को यों मत कसो
खुलकर रो लो और खुलकर हँसो
थोड़ी हल्की बनो, इसका भी कुछ अर्थ है
उलझन-अवसादों की गरिमा तो व्यर्थ है
दुनिया हर रोज़ ही कुछ न कुछ बढ़ती है
बात कुंठा से नहीं, गति से सुलझती है ।
ज़रा ढील दो, अपने को यों मत कसो
खुलकर रो लो और खुलकर हँसो
थोड़ी हल्की बनो, इसका भी कुछ अर्थ है
उलझन-अवसादों की गरिमा तो व्यर्थ है
दुनिया हर रोज़ ही कुछ न कुछ बढ़ती है
बात कुंठा से नहीं, गति से सुलझती है ।