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स्मृतिबंध / विमलेश शर्मा

लौटना पीछे छोड़ जाता है
रिक्तता, एकाकी नीरव
और हताश रव!
इसी तिक्तता में
धरती की कलाई पर कोई मन्नत बाँधता है
धूप के टुकड़ों को चुन
हर्फ़-हर्फ़ बुन ख़ुदा लिखता है
फिर भी लिक्खा है कि अधूरा रह जाता है!
दर्द की तासीर हर दिल पर एक-सी गुज़रती है
फ़िर भी क्यों बोल घाव करने में ही यकीं रखते हैं

जाने किस चीज़ के पीछे दुनिया पाग़ल है
जबकि अंत सभी का मिट्टी में ही बदा है
लौटता दिन क्षणिक नैराश्य लाता है
इसलिए दिन बनकर कभी न लौटना
लौटो तो चाँद को दरवाज़े पर टिका कर
कह भर देना
चाहे झूठ ही सही
कि मैं रहूँगा तुम्हारे माथे पर
चाँद-सूरज बन सदा-सदा!
समझा करो!
बचपन की सुनी कहानियाँ
ज़ख़्म पर मरहम का काम करती हैं...
अब कौन समझाए और किसे कि
यूँही तो आख़िर कच्चे रिश्तों की पक्की बुनियाद हुआ करती है!