स्मृति !कैसे विस्मृत करूँ तुझको
तू तो उस फूल की तरह है
जो कभी मुरझाता नही
तेरी गंध इतनी सोंधी है
कि जिसे जब भी अनुभव करती हूं,
धँस जाती हूँ अपनत्व की मिट्टी में,
तेरी ममता उड़ेल देती है
प्यार का सागर
मेरी रिक्तता में,
तेरे अनेक चित्र
मेरे मन की आँखों को रंग देते हैं
तेरे अनेक प्रेमिल प्रतिरूप
मुझे संबल देते हैं,
तेरी अठखेलियाँ
मुझे मेरा बचपन देती हैं,
तेरी गहराइयाँ
मुझे जीवन का दर्शन देती हैं।
स्मृति!कैसे विस्मृत करूँ तुझको,
तू तो उस स्वप्न की तरह है
जो सदैव साकार होता है,
उस गीत की तरह है
जो सदैव गुंजार होता है,
उस मीत की तरह है
जो मन की पुकार होता है
स्मृति!क्यों कर विस्मृत करूँ तुझको?