आ गए सुस्ती के महीने, झपकियों के काहिल-शिथिल,
यों लगता है, सचमुच यह जीवन गुज़र चुका अनजान ।
काम-धाम सब ख़त्म करके वो घर में हुआ दाख़िल,
औ’ दस्तारखान पर जा बैठा फिर देर-दुरुस्त मेहमान ।
वो पीना चाहे है कुछ — पर उसे मदिरा नहीं भाती,
चाहे है वो खाना कुछ — पर मुँह में जाता नहीं कौर ।
सुने ध्यान से वो कैसे रीबिना की बेरी फुसफुसाती,
कैसे सोनचिरैया गाती है, बाहर खिड़की के और ।
उस सुदूर देश के बारे में गाती है ये सोनचिरैया,
जहाँ हिम-तूफ़ान के पार मुश्किल से झलक रहा,
एक अकेली क़ब्र का ढूह औ’ उसकी मिट्टी की ढैया,
जिसके ऊपर उजला -बिल्लौरी हिम चमक रहा ।
वहाँ कभी सुनाई न देती भुर्जवृक्ष की फुसफुसाहट
जिसका मोटा तना बर्फ़ में कहीं गहरे धँसा हुआ ।
वहीं उसके ऊपर फैली है पाले के घेरे की सुरसुराहट
तैर रहा जिसमें लहूलुहान-सा चन्द्रमा फँसा हुआ ।
1952
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय
—
लीजिए, अब यही कविता रूसी भाषा में पढ़िए
НИКОЛАЙ ЗАБОЛОЦКИЙ
Воспоминание
Наступили месяцы дремоты…
То ли жизнь, действительно, прошла,
То ль она, закончив все работы,
Поздней гостьей села у стола.
Хочет пить — не нравятся ей вина,
Хочет есть — кусок не лезет в рот.
Слушает, как шепчется рябина,
Как щегол за окнами поет.
Он поет о той стране далекой,
Где едва заметен сквозь пургу
Бугорок могилы одинокой
В белом кристаллическом снегу.
Там в ответ не шепчется береза,
Корневищем вправленная в лёд.
Там над нею в обруче мороза
Месяц окровавленный плывёт.
—
1952 г.