हृदय के विजन में
ओ प्रवासी तुम कैसे आ बसे
कर्तार की कृपा है
या अंत:करण का भ्रम
पर इस विलक्षण विपन में
जहाँ राह भूल जाना
विधि का विधान माना जाता है
वहाँ तुम्हारा क्षणिक प्रवास
किसी अतुलित संपदा की तरह सहेजे रखे हूँ
अपनी आँखों में
कहीं कोई रजनीचर इन्हें चुरा न ले
स्वयं के प्रतिबिंब से भी दूर रखती हूँ
जहाँ सदा निशांत का शुभ्र आलोक रहता है
स्मृतियों की इस मलय में तुम्हारी यादों के प्रसून सुगंधित रहते हैं।