शहर के बुध्द चौक पर चार दिशाओं में खड़े हैं चार बौद्ध भिक्षु
एक साथ, एक दूसरे की पीठ से जुड़े हुए
झुके हुए शीश, बंद नेत्र, हाथ क्षमा दान की मुद्रा में उठे हुए
उनके चेहरे पर लिखा है घोर विषाद
शायद यह मेरा भ्रम हो या कि कल्पना का अतिरेक
लेकिन शहर पर बीते हर दुःख के बाद
उनके चेहरे पर खिंच आती है पीड़ा की नयी लकीरें
शहर के हर नए पाप के बाद
उनके चेहरे थोड़े और झुक जाते हैं
और मैं वहाँ शर्म की गहरी काली छायाएं देखती हूँ
वे उस मूर्तिकार के शुक्रगुज़ार होंगे शायद
जिन्होंने उनके नेत्र बंद कर दिए और एक अश्लील शहर को देखते रहने के अपराध से बचा लिया
उनके चारों ओर भागती एक बेदम भीड़
अपनी आत्मा में भरती जा रही है एक स्याह धुंआ
उसे कहीं पहुँच जाने की ज़ल्दी है
जबकि वास्तव में वह एक घेरे से बंधी बस गोल गोल चक्कर काट रही है
भिक्षु इस भीड़ के बहाने उन सभी को माफ़ कर देना चाहते है
जो मानवता को प्रतिमाओं में बदल देने की साज़िश में उलझे हैं
एक बीमार शहर के चौराहे पर खड़े ये चार बौद्ध भिक्षु
उसकी हर रोज़ की जा रही आत्महत्या के मूक गवाह हैं
कुछ नहीं कर पाने के दुःख और शर्म से गड़े
वे हर रोज़ ख़ुद भी थोड़ा थोड़ा मरते जा रहे हैं