तिरहुति हमरा सभक स्वदेश, जनम लेल हम जनिक उदेश
उठी न कखनहुँ प्यासेँ कानि, कूप-कूप भरि राखथि पानि
हमरा लै जोगबै छथि अन्न बाध-बोन आँचर मे बान्हि
माय हमर छथि तिरहुति देश, जकर कोर सपनहु न कलेश॥1॥
जकर माटि माखन सँ मीठ, जकर पानि लग दूधो ढीठ
मलय वायु सँ सरस बसात पुष्ट भेल छी जनिकहि दीठ
सीखल भाषा, सीटल वेश, जतय हमर से जयतु स्वदेश॥2॥