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स्वपरिचय / नीरव पटेल / मालिनी गौतम

किसी दिन अतिथि बनकर आओ, सवर्णा
मेरी व्यथा जाननी हो तो
अछूत का स्वांग रचकर आओ, सवर्णा ।

देखो तुम्हारे शहर से अपने गाँव का रास्ता —
सबसे ऊँची हवेली को टालते हुए आना,
वहाँ तो बार-बार भोगी जाती हैं
हमारी बेसहारा अबलाएँ !

वह ज़मींदार तो गाँव का राजा है
वह अस्पृश्य तो क्या
जवान कुतिया को भी छोड़े ऐसा नहीं है !

गाँव की सीवान पर बनी प्याऊ पर पानी मत माँगना
तुम्हें ओख से पानी पीना आता है !
देखो वहाँ मेरा पता-ठिकाना मत पूछना
नहीं तो किसी की नाक सिकुड़ जाएगी
और किसी की आँखों में घृणा भर आएगी

दाँये-बाँये देखते हुए
मत सोचना कि
यहीं-कहीं होगा मेरा घर
यहाँ तो रहते हैं
ब्राह्मण, पटेल, कोली, कुम्हार, मोची,

बस अब इस खाई को पार कर
सामने टेकरी पर
झाड़ में दबे हुए झोंपड़ें दिखाई देंगे
जिनके कवेलू पर बैठा होगा
एक-आध गिद्ध या कलील
या आँगन में दो-तीन कुत्ते
चबाते होंगे हड्डी,

काला रंग, छोटी देह,
और आधा-उघड़ा शरीर !
हाँ, सवर्णा ये सब मेरे भाई-बन्धु हैं,
माँ घर में गाय का घूघरा सेक रही है,
बापू खारे पानी के कुण्ड में चमड़ा फिरा रहे हैं
ये जो चौगान में चमड़ा काट रहे हैं ये काका हैं,

भाभी आँक और आवल (सनाय/ सोनामुखी) तोड़ने गई है
और छोटी बहन तो गागर लेकर तालाब पर गई है।
बस सवर्णा, अब नाक मत दबाओ

गन्दगी में दम भी घुटता है
और घिन भी आती है
पर देखो मैं तो यहाँ दूर
नीम के नीचे खटिया बिछाकर
पढ़ रहा हूँ पाब्लो नेरुदा की कविताएँ !

मैं भी इस टापू का एकाकी मनुष्य हूँ ।

अनुवाद : मालिनी गौतम