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स्वप्न आशा के / रश्मि विभा त्रिपाठी

हाँ मुझे इन रतजगों ने
दूर रखा है नींदों से
जाने कितने ही
दिन महीनों से मैं
सो नहीं पाई हूँ
याद आकर
बैठ जाती है सिरहाने
शाम से ही घेर कर

उसी गुज़रे जमाने की
छेड़ देती है बातें अकसर
दोहरा कर
कहानियाँ अतीत की
उड़ेल देती है
ढेर भर उदासी चेहरे पर
हाँ...
अचानक
गिर तो पड़ते हैं
आँसू निराशा के
मगर फिर देखने लगती हैं
मेरी नम आँखें नए स्वप्न आशा के!