'कठिन शीत है,
ठिर न गये हों कहीं तुम्हारे कोमल कर,
कोमल पाँवों के पोर,
(ले अपने उत्सुक हाथों में)
आओ इन्हें तनिक गरमा दूँ, आओ भी इस ओर!
छू लेने दो ठंढी ठंढी नोक नाक की
औ कानों की लोर--
आओ ना इस ओर!’
तुम मुँह फेर खड़े थे--देखो मैंने तुम्हें बुलाया,
इतने में खुल गई आँख, सपना आँखों का जाने कहाँ समाया!
है इनका स्वभाव ही ऐसा--
मिट्टी के प्यालों-से सपने टूट फूट जाते हैं,
जान बूझकर आँखों में क्यों आँसू फिर भी भर आते हैं?
शून्य निशा है, मैं एकाकी;
आओ मेरे पलक पोंछ दो,
प्रिय! अपने सुकुमार करों में ले साड़ी का छोर!
बड़े बड़े करुणार्द्र दृगों से देखो ना इस ओर!