पिता स्वप्न में दिखते हैं।
मायके के तलघर में रखी
उनकी प्रिय आराम कुर्सी पर
बैठकर सिगरेट पीते हुए,
कभी कोई फ़िल्म या क्रिकेट देखते हुए
या कोई अंग्रेज़ी किताब हाथ में थामे
चाय के घूँट भरते हुए।
उन्हें स्वप्न में देख आश्वस्त रहता है मन
कि वे वहाँ भी सुख से ही होंगे।
ग
माँ जैसे कभी जीते जी
एक जगह टिककर नहीं बैठी;
स्वप्न में भी कभी एक दृश्य में नहीं बंध पाती।
दिखती है कभी गौशाला में गोबर पाथती हुई।
कभी पशुओं की सानी पानी करती हुई।
जंगल से धोती के छोर में काफ़ल बाँध कर लाती हुई।
जलती दुपहरी चूल्हे पर दाल सिंझाती, भात पसाती हुई
निष्कपट पिता को दुनियादारी समझाती हुई।
बेटियों को जिम्मेदार और
सुघड़ होने की तरकीबें सिखाती हुई
पराए घर में बाप की इज़्ज़त
रखने की हिदायतें करती हुई।
मैं स्वप्न से जागकर सोचती हूँ
कि दुनियादारी में असफल अपनी
बेटियों के दुःख जानकर
क्या माँ अब भी चैन से बैठ पाती होगी
और उदास हो जाती हूँ।