स्वर्गंगा की महानता में
अप्रतिहत गति से प्रतिकूल दिशा में
चले जा रहे थे दो तारे।
दोनों एकाएक परस्पर
आकर्षित हो, वद्र्धमान गति से निज पथ से हट कर
खिंचे चले आये बेचारे।
प्रेरक शक्ति रहस्यमयी-से हो कर
प्रतिकूलता भुला कर, निज स्वाभाविक गति को खो कर,
नियति वज्र के मारे।
अति समीप आ दोनों पहुँचे,
अपनी गति से जनित तेज को नहीं सह सके
पिघले- भस्म हो गये- क्षार हो गये सारे!
क्षार-पुंज भी शीघ्र खो गया शून्य व्योम में
व्यंजक उन के प्रबल प्रणय का
एकमात्र स्मृति-चिह्न रहा क्या?
नीरव, प्रोज्ज्वल एक क्षणिक विस्फोट मात्र!
उस के बाद? वही स्वर्गंगा का प्रवाह
तिरस्कार से भरा- निश्चला अमा रात्रि!
हम-तुम भी- प्रतिकूल प्रकृतियाँ,
विषम स्वभाव, और अति उत्कट रुचियाँ-
किस अज्ञात प्रेरणा से दोनों थे खिंचे चले आये-
कितना निकट चले आये!
किन्तु न अपने प्रणय-तेज को भी सह पाये-
शून्य में गये भुलाये!
दिल्ली जेल, 5 जून, 1932