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स्वागत देवदूत / नवनीता देवसेन

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कभी ऐसा होता है,
कभी ऐसा भी होता है कि
विशाल काँच-जैसा, नीली आँखों वाला निस्तब्ध आकाश
अचानक सब कुछ को ढाँपता
ज़बर्दस्ती घुस आता है घर में
कोने में जलती है आग
किताबों से भरे हुए हैं ताक
बिस्तर के रंगीन चादर से छलक कर
पहाड़ी बादलों की तरह चुपचाप घर में घुस आता है।
काँच के बक्से के भीतर हम सब अलग-अलग
तुरन्त दुकान के ललचाने वाले ताकों पर जा बैठते हैं -
अभी तक नहीं आए हैं ख़रीददार
सभी लोग अलग-अलग प्रतीक्षा में हैं
काँच के घर में अकेले हैं सभी
दिखते हुए-से, अस्पृश्य और सुदूर।
पहाड़ी बादलों-जैसे घर में आती है ऐसी निस्तब्धता
ऐसी स्तब्धता तैरती रहती है।
फिर भी कोने में जलती रहती है आग
किताबों से भरे हैं ताक
बिस्तर पर रंगीन चादर।
चारों ओर कितनी ही आँखें हैं भाषाहीन,
मानो किसी के फूलों के बगीचे में बैठी हूँ
हवा नहीं है -- पल भर में सारे फूल बदल गए हैं
अख़बारी विज्ञापनों की तस्वीरों में।
इसी तरह निःशब्द घुसती है
घर को भरती हुई सामाजिक गरम हवा
अकस्मात चढ़ जाती है पर्वत-शिखर पर
विशुद्ध और भारी --
इतनी शुद्ध कि पल-भर में सभी को
साँस की तकलीफ़ शुरू हो जाती है।
मानो नीचे, आस-पास, चेहरा उठा कर
सिर के ऊपर, कहीं पर भी नहीं है कुछ
सिर्फ़ बादल हैं, सफ़ेद बादल
विपुल विस्तार है शुद्धता का, शून्यता का...
एक वाक्य के अंत और दूसरे की शुरुआत से पहले
बीच-बीच में कितनी अनोखी शुद्धता की बाढ़ उतर आती है,
अचानक मानो हम सभी अलग-अलग प्रलय में
क़ैद होकर रह गए हैं

मानो टूट गए हैं सूचना के सभी तार
सारे पुल ध्वस्त हो गए हैं
सारे रेलपथ बह गए हैं भयंकर बाढ़ में
मानो कहीं भी नहीं हैं शहर, गाँव नहीं हैं
नहीं हैं बस्तियाँ,
जितनी दूर तक जाता है मन ; जाते हैं प्राण, निःसीम इलाक़ा --
आसन्न संकट से शायद श्वासनलिका रुद्ध होने लगती है...
ठीक उसी वक़्त
अविकल देवदूत के शुभागमन-सा
उभरता है कोई शब्द।
 
ज़बर्दस्त कोशिशें करता
गले तक पानी को ठेल-ठेल
सारी रात पैदल चल के आकर कोई
मानो अपने प्रियजन का सत्कार कर गाँव लौट गया हो।
ज़बर्दस्त कोशिश करके
कोई कह उठता है कोई बात
कितना अनोखा है इंद्रजाल --
उचारा गया शब्द मानो मंत्र की तरह रक्षा करता है --
मंत्र की तरह सारी मृत आँखें डर के मारे जी उठती हैं
फूलों के बगीचों में मानो बहती है हवा
कोने में जलती रहती है आग,
ताक पर किताबें, बिस्तर पर रेशमी चादर
निस्तब्धता अभी-अभी उतर गई है रास्ते पर।
हिलते हैं पर्दे
गर्म शुभ सौहार्द्र की हवा को कँपाते घूमते रहते हैं शब्द --
घर-भर में दयामय शब्द घूमते-फिरते हैं
घर-भर में बिखरती रहती है
शब्दमय करुणा।


मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी