'स्वामी को कभी हनुमान
पा सुअवसर वत्स मेरा भी दिलाना ध्यान
प्रेमवश हठ किया मैंने, थी अबोध अजान
क्यों मिला उस स्वल्प त्रुटि का दंड बेपरिमाण
असुरपुर में वास, अग्नि प्रवेश, दुःख, अपमान
ये यथेष्ट नहीं! रचा फिर यह कठोर विधान
रहे तन में आज तक जो ये हठीले प्राण
क्या न मेरी विवशता का नाथ को है ज्ञान
सौंप यह थाती उन्हें मैं, है येही अब आन
मूँद लूँ ये नेत्र, कर मुख-छवि-सुधा का पान'
स्वामी को कभी हनुमान
पा सुअवसर वत्स मेरा भी दिलाना ध्यान