रामकृष्णलीलाह्नद के शतदल सहस्रदल,
स्वयंज्योति तुम, दीप्यमान तुमसे भूमण्डल।
परितापित जीवों का करने ताप निवारण,
हुए अवतरित मर्त्यभूमि में धर मानव-तन।
आत्मबन्धहर नाद बिन्दु स्वर तुममें छन्दित,
शंकर का अद्वैत ज्ञान तुमसे महिमान्वित।
भक्तियोग नारद का तुमसे शक्तितरंगित,
उपनिषदों का चरम सत्य तुममें प्रतिबिम्बित।
मानवता की आत्मकथा के तुम अभिव्यंजन,
कालातीत पुरुष के निद्रारहित जागरण।
सृष्टि-यज्ञ के विस्फुलिंगमय तुम वैश्वानर,
जिसमें दीप्त हो उठा शिल्प निखिल कर तपकर।
ज्वार-लहर से मथित सिन्धु-तल के बड़वानल,
राग-विटप को झुलसाने वाले दावानल।
उदयाचल के जाकुसुमप्रभ भुवनविभाकर,
भूमण्डल यह जगा तुम्हारे जग जाने पर।
किया विराट प्रणव का तुमने छन्द-निबन्धन,
परम ऊर्ध्व के गरुड़-पंख पर कर आरोहण।
नर-नारायण के गौरव का तथ्य निरूपण,
बना तुम्हारी ऋतम्भरा प्रज्ञा का दर्शन।
गतिपथ पाते तुमसे आघातों से जर्जर,
अर्द्धनग्न दीनातिदीन अगणित नारी-नर।
मन्वन्तर की निए निराशा मुखमण्डल पर,
करते जो क्रन्दन से कम्पित दीर्ण दिगन्तर।
परम अर्थ वेदों के आप्रकाम योगेश्वर,
ज्ञानतीर्थ के अनुशीलन में निरत निरन्तर।
अग्निमन्त्र से युगादर्श को मूर्त्त बनाकर,
धर्मभूमि भारत में तुमने किया युगान्तर।
आर्तबन्धु तुम अभिनव भारत के उद्बोधन,
चिदानन्दघनमधु का करने वाले प्राशन।
भूमामृत के स्वर-वयंजन को अर्थों से भर,
किया अंकुरित शत-सहस्रधा पृथिवीतील पर।
नमः परम ऋषि उठे हुए माया के ऊपर,
उत्सर्गित श्री रामकृष्ण गुरु के चरणों पर।
ऊर्ध्वभूमि में आत्म-ज्ञान या बोध प्राप्त कर,
अभिषेकित तुम महाश्रेय के सिंहासन पर।
विश्व भुवन का महाकाश तुमसे छन्दोमय,
परमतत्त्व के केन्द्र नियामक, अमृतपुत्र, जय।
अमर तुम्हारे जीवन का संगीत काव्यमय,
ऋषिप्रज्ञा ाक मानदण्ड अन्तर्गौरवमय।