कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार!
शयन कक्ष, दर्शन गृह की श्रृंगार!
उपवन के यत्नों से पोषित.
पुष्प पात्र में शोभित, रक्षित,
कुम्हलाती जाती हो तुम, निज शोभा ही के भार!
कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार!
सुभग रेशमी वसन तुम्हारे
सुरँग, सुरुचिमय,--
अपलक रहते लोचन!
फूट फूट अंगों से सारे
सौरभ अतिशय
पुलकित कर देती मन!
उन्नत वर्ग वृंत पर निर्भर,
तुम संस्कृत हो, सहज सुघर,
औ’ निश्चय वानस्पत्य चयन में
दोनों निर्विशेष हो सुंदर!
निबल शिराओं में, मृदु तन में
बहती युग युग से जीवन के सूक्ष्म रुधिर की धार!
कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार!
मृदुल मलय के स्नेह स्पर्श से
होता तन में कंपन,
जीवन के ऐश्वर्य हर्ष से
करता उर नित नर्तन,--
केवल हास विलास मयी तुम
शोभा ही में शोभन,
प्रणय कुंज में साँझ प्रात
करती हो गोपन कूजन!
जग से चिर अज्ञात,
तुम्हें बाँधे निकुंज गृह द्वार!
कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार!
हाय, न क्या आंदोलित होता
हृदय तुम्हारा
सुन जगती का क्रंदन?
क्षुधित व्यथित मानव रोता
जीवन पथ हारा
सह दुःसह उत्पीड़न !
छोड़ स्वर्ण पिंजर
न निकल आओगी बाहर
खोल वंश अवगुंठन?
युग युग से दुख कातर
द्वार खड़े नारी नर
देते तुम्हें निमंत्रण!
जग प्रांगण में क्या न करोगी तुम जन हित अभिसार?
कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार !
क्या न बिछाओगी जन पथ पर
स्नेह सुरभि मय
पलक पँखड़ियो के दल?
स्निग्ध दृष्टि से जन मन हर
आँचल से ढँक दोगी न शूल चय?
जर्जर मानव पदतल!
क्या न करोगी जन स्वागत
सस्मित मुख से?
होने को आज युगान्तर!
शोषित दलित हो रहे जाग्रत,
उनके सुख से
समुच्छ्वसित क्या नहीं तुम्हारा अंतर?
क्या न, विजय से फूल, बनोगी तुम जन उर का हार?
कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार!
हाय, नहीं करुणा ममता है मन में कही तुम्हारे!
तुम्हें बुलाते
रोते गाते
युग युग से जन हारे!
ऊँची डाली से तुम क्षण भर
नहीं उतर सकती जन भू पर!
फूली रहती
भूली रहती
शोभा ही के मारे!
केवल हास विलास मयी तुम!
केवल मनोभिलाष मयी तुम!
विभव भोग उल्लास मयी तुम!
तुमको अपनाने के सारे
व्यर्थ प्रयत्न हमारे!
बधिरा तुम निष्ठुरा,-- जनों की विफल सकल मनुहार!
कुल वधुओं सी अयि सलज्ज सुकुमार!
रचनाकाल: फ़रवरी’ ४०