अभी तक सिसकियाँ अपनी
रखी दहलीज के भीतर
तहों में भींचकर मन की
रखे हैं
अंकुरण जो भी
किसी दिन फूट कर वे
देख लेना
क्रांतियों के स्वर बनेंगे
और कल की भोर के
कुहरिल क्षितिज पर
वे नये विश्वास का
सूरज धरेंगे
हमारे पास दौलत है
हमारे स्वेद के सीकर।
यह व्यवस्था
बन्दिशें ये
और अन्धी मान्यताएँ
कब तलक बढ़ते क़दम को
रोक लेगी बाध्यताएँ
टूटता है बाँध जब
सैलाब तब किससे रुका है
न्याय के सम्मुख सदा
अन्याय का ही
सिर झुका है
ये मसीहा स्वयंभू
बैठे नहीं
अमरत्व पीकर।
मज़हबों की डुगडुगी पर
नाचते-लुटते रहे हम
खेलते तो वे रहे
मुहरे बने पिटते रहे हम
क्या रहे अस्तित्व
जूठी पत्तलों सा फेक देना
या कभी
माला बनाकर
सिर झुकाकर टाँग लेना
अब दिखाना है
हमें ही
ज़िन्दगी का सार जी कर
13.9.2017