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हँसती हुई लड़कियाँ / लीना मल्होत्रा

अन्धेरे में हँस रही हैं दो लड़कियाँ
अवसाद को दूर ठेलती
हँस रही हैं लड़कियाँ
अपने हाथ से मुँह को ढके
वे उस हँसी को रोकने की कोशिश कर रही हैं।
मगर हँसी है
कि फिसलती चली आ रही है उनके होंठो से
हाथो की उँगलियों की झीनी दरारों से
जैसे
सीटी में फिसलते चले आते हैं सुर
सन्नाटे में फिसल आता है डर
भूख में फिसल आती है याचना
कविता में जीवन
वैसे ही फिसलती हुई हँसी हँस रही हैं लड़कियाँ
नींद में डूबे पेड़
उनकी हँसी सुन आँखे मलते उठ गए हैं
और फिसलने लगे हैं उनके पीछे
फिसलने लगे हैं पतंगे
मद्धम रोशनी के नाईट बल्ब और सुदूर आसमान में सितारे
फिसलने लगी हैं दिशाएँ
झींगुरो की सन्नाटे को तोडती ध्वनियाँ फिसल रही हैं

फिसल रहा है शराबी का सारा मज़ा
और दिशाओं के क़दमों के नीचे दबे तमाम सूखे पत्ते
अख़बारों की सुर्खियाँ
जो अभी-अभी अख़बारों पर बैठी थीं
फिसलने लगी हैं हँसी के पीछे

मैं इस हँसी को जानती हूँ
एक सदी पहले मैं भी ऐसे ही हँसी थी
तब
बैल के सींग झड़ गए थे पीपल के पत्ते
रानी पागल हो गई थी
और नदी लाल हो गई थी
लड़कियों की हँसी से अक्सर
ऐसी ही हो जाती हैं अनहोनियाँ
फिर भी इस छोटी उम्र में हँसती हैं दो लड़कियाँ
अन्धेरे में
जहाँ वह सोचती हैं उन्हें कोई नहीं देख रहा

लेकिन उनकी हँसी के पीछे एक काफ़िला चल देता है
जो पहले सम्मोहित होता है
और आँखें बन्द किए चलता है पीछे-पीछे
फिर जान जाता है जब रहस्य उनकी हँसी का
तब
समूचा निगल लेता है उस हँसी को
और उसकी एक तस्वीर
समय के हाथ दन्तकथाओं को सौंप देता है
दन्तकथाएँ फिसलन को
धूल की तरह झाड़ कर
हिफ़ाज़त से सम्हाल लेती हैं उस हँसी को