जीवन के जंगल, रेत, पहाड़ में
कलकल सुनें हम हँसी नदी की
हँसी की चमक में
धुल जाए मन का कसैलापन
हो जाए आत्मा उज्ज्वल
यह हँसी निर्बल, निर्धन, निरीह पर न गिरे
न इसके छीटें छीटाकशी करें जो रह गए हैं पीछें
थक कर बैठा गए हैं कभी पथ में
उतर गए हैं कहीं अपने में ही नीचे
बह जाए रोज़ाना की कीच, कपट, कपाट
निर्बंध,निर्द्वन्द्व,निष्कलुष यह हँसी
जोड़े नदी के निर्जन द्वीपों को
सरस, सहज, सहयोगी बनें हम
स्वाद हो ऐसा इस हँसी का
जो भूखे, दूखों को भी रुचे