भले ही बादलों को चीरता बाज़
मिल आता रहे चमकती विद्युत से
और अपनी गतिहीन आँखों से
सूर्य का जी-भर पीता रहे आलोक ।
पर, ओ हंस, किसी को भी प्राप्त नहीं है
तुम्हारे जैसी ईर्ष्याजनक नियति --
तुम्हारे ही जितनी निर्मल प्रकृति का
परिधान पहनाया है तुम्हें देवताओं ने ।
दोहरे अथाह गह्वर के बीच
रक्षा करती है वह तुम्हारे सर्चदर्शी सपनों की ।
तारों की समस्त गरिमा से
सर्वत्र तुम रहते हो आलोकित ।
रचनाकाल : 1828-1829