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हक दो / केदारनाथ सिंह

फूल को हक दो, वह हवा को प्यार करे,
ओस, धूप, रंगों से जितना भर सके, भरे,
सिहरे, कांपे, उभरे,
और कभी किसी एक अंखुए की आहट पर
पंखुडी-पंखुडी सारी आयु नाप कर दे दे-
किसी एक अनदेखे-अनजाने क्षण को
नए फूलों के लिए!
गंध को हक दो वह उडे, बहे, घिरे, झरे, मिट जाए,
नई गंध के लिए!
बादल को हक दो- वह हर नन्हे पौधे को छांह दे, दुलारे,
फिर रेशे-रेशे में हल्की सुरधनु की पत्तियां लगा दे,
फिर कहीं भी, कहीं भी, गिरे, बरसे, घहरे, टूटे-
चुक जाए-
नए बादल के लिए!
डगर को हक दो- वह, कहीं भी, कहीं भी, किसी
वन, पर्वत, खेत, गली-गांव-चौहटे जाकर-
सौंप दे थकन अपनी,
बांहे अपनी-
नई डगर के लिए!
लहर को हक दो- वह कभी संग पुरवा के,
कभी साथ पछुवा के-
इस तट पर भी आए- उस तट पर भी जाए,
और किसी रेती पर सिर रख सो जाए
नई लहर के लिए!
व्यथा को हक दो- वह भी अपने दो नन्हे
कटे हुए डैनों पर,
आने वाले पावन भोर की किरन पहली
झेल कर बिखर जाए,
झर जाए-
नई व्यथा के लिए!
माटी को हक दो- वह भीजे, सरसे, फूटे, अंखुआए,
इन मेडों से लेकर उन मेडों तक छाए,
और कभी न हारे,
(यदि हारे)
तब भी उसके माथे पर हिले,
और हिले,
और उठती ही जाए-
यह दूब की पताका-
नए मानव के लिए!