उस तारीख़ में कुछ भी नया न था
कोई चमक न थी
उस दिन भी
धूप निकली तो एक नर-कबूतर
अपनी मादा के पर खुजलाता
देखा गया पुरानी मुंडेर पर
गाड़ियाँ उसी तरह रुकी थीं
सिगनल के इंतज़ार में
आधी दुनिया बदहवास
थी रोज़ की तरह
दुपट्टे की हिफ़ाजत की फ़िक्र में
मधुबनी से आया मंहगू
बहा चुका था ढेरों पसीना
शहर की व्यस्ततम सड़क पर
दोस्तों, सूरज निकलने से पहले ही
दी गई हत्यारे को फाँसी
और हत्यारे का नाम
शहीदों की फ़ेहरिस्त में
बता रहे थे अख़बार
इस तरह धूप का आख़िरी टुकड़ा
विदा ले रहा था आँगन से ।