इन अनाथ नगरों के
नगर पिताओं को
हो सके तो कोई दूसरे नाम दो!
अब न पहले से नगर रहे और
न, नगर पिता!
न नगरों की आत्मा रही, आस्मिता;
वैसे ही आदतन
चीखती रहती हैं सड़कें
कोई नहीं देखता, सुनता,
आम आदमी की व्यथा!
शायद इस त्रासदी की सड़क
अन्तहीन है।
इस पर अभावों की यात्रा
जानें क्यों अनुत्तरित
ही रह जाती है,
बार-बार यह संवादहीनता?
अब तो खुले आम
हो रहा है
बस्तियों का खून
सरे आम हो रही है
शहरों की हत्या!