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हथेली की नमी / योगेन्द्र दत्त शर्मा

वक्त यूं रेत की मानिन्द फिसल जाता है,
किसी लुटते हुए इन्सान के चेहरे की तरह,
मेरे ये हाथ यूं सकते में थरथराते हैं
कि जैसे झील के ठहरे हुए पानी से कोई
मौज टूटी हुई साहिल की गुजर जाती है
अब भी मदहोश हवा बदहवास मौसम को
छू केहल्के से कोई आग-सी बो जाती है।
मेरी आवाज किसी भीड़ में खो जाती है!

फूल में शोला कोई अपनी दहक रखता है,
अब न सुनता है कोई बाग में बुलबुल की चहक
अब न आती है गुलों से कोई खुशबू की महक
अपने चेहरे से उलझने की है फुर्सत किसको
ख्वाब वहशी कोई माहौल पे मंडराता है!

हर तरफ सिर्फ सवालात नजर आते हैं
मगर जवाब किसी फ्रेम के शीशे की तरह
टूटकर दर्द से, किरचों में बिखर जाते हैं
सूरतें देख के आईने बदल जाते हैं!

तल्ख अहसास, हंसी होठ से कतराई हुई
चीख खंडहर के किसी संग से टकराई हुई।
शुमशुदा वक्त, हवाओं में उदासी की शिकन
आंख में सुर्ख परेशान खयालों की चुभन
धुंध में आग की तस्वीर सिमट जाती है
मेरी नजर किसी बैरंग हुए खत की तरह
हर तरफ धूप में खामोश पलट आती है!

ये सब है दोस्त, मगर इसका क्या करे कोई
मेरी हथेली पे अब तक भी नमी बाकी है
किसी सलीब पे लटका हूं हाथ फैलाये,
कहीं मैं अपनी हसीं दौर का ईसा तो नहीं!
-दिसंबर, 1975