हम सबके भीतर जम गई है
सुनसान उतरी-दक्षिणी धु्रवों में फैले
बर्फों की एक ठोस मोटी परत-
लौह-चट्टान से भी सख्त,
जो न गलेगी-टूटेगी कमबख्त!
पर, अब काटनी तो होगी ही
चीन की दीवार-सी मोटी वह लम्बी जड़ बरफ!
बिलो नॉर्मल है तापमान मानव-चेतना का चौतरफ।
भारी जड़ चट्टान को डायनामाइट से काट उड़ाना है,
लाख-लाख हॉर्स पॉवर का ट्रेक्टर चलाना है।
अब तो सूखा लक्कड़ काटना है,
गैंड़े के चमड़े को फाड़ना है,
फॉसिल-से गहरे जमे आदमी को
जड़ता की गहराइयों में से उखाड़ना है,
क्रांति की बरछी-सी तेज गरम किरणों से
बर्फों को गलाकर
मानव की आत्मा का खोया संगीत फिर से जन्माना है,
लहरों के कल्कल् नवजीवन-संगीत से दिशाओं को गुँजाना है।
खोज निकालना है-भूमियों में गहरे दबे पड़े-
आत्मा के आनन्द का चिर बन्दी
प्राण-गीतों भरा मानव का अनादि खजाना है!
हो चुका है सौ सुनार की,
अब तो होगी एक लुहार की।
लोहे का एक भारी हथौड़ा
बस अब हाथ में आना है!
1986