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हनमू-पनमू / अमरेन्द्र

चिन्ता में बैठा पनमू है, अब क्या होगा बेटा
लपक गया न्यायालय मंदिर-मस्जिद वाला लड्डू
कई दशक से दिखता था जो एकदम निरा फिसड्डू
फूल मार के मारा है, पर अपने लिए चमेटा ।

अब हनमू को बस में रखना पनमू को है मुश्किल
अलग खटालों के हनमू अब चैपालों में मिलते
गाँवों के पोखर में जैसे कमल फूल हैं खिलते
निराकार-साकार हुए हैं एक भोज में शामिल ।

पनमू, पान चबाने के दिन गये, तमोली चेता
कब तक भेंड़ लड़ाओगे, डाले गर्दन में रस्सी
हनमू नहीं ऊँट या बकरा, पाठा या फिर खस्सी
न्यायालय को समझो पनमू, उससे बड़ा न नेता ।

हनमू समझ गया हैµपनमू हाथी की है जोंक
भरे गाछ को दीमक करती भीतर-भीतर फोंक ।