घना कुहासा
पगडंडी पर राख झर रही
हमको चिंता
पता नहीं कब
सूरज फिर से गीत लिखेगा
नई सुबह का
किया अँधेरा, सुनो, इकट्ठा
शाहों ने है
जगह-जगह का
सोनचिरइया आह भर रही
हमको चिंता
लाखों जतन किये
आँगन में धुआँ भरा था
नहीं छंटा वह
याद आ रहा हमें
सूर्यकुल का है किस्सा
साधो, रह-रह
जोत दिये की भी
चिताओं का ज़िक्र कर रही
हमको चिंता
बात पुराने संवत्सर की
सोच रहा दिन
नये साल का
आँधी-पानी से रितु जूझी
अब भी मौसम है
अकाल का
ड्योढ़ी पर
पतझरी हवा है पाँव धर रही
हमको चिंता