छिपा आस्था को पर्दे में
हमने कितने नाटक खेले।
राग-राागिनी को भरमाने
जुटी आज दुर्वृत्ति आसुरी
जाने कहां सप्त स्वर भटके
भौंचक्की रह गई बांसुरी
लय की नहीं कहीं गुजांईश
किस स्वर को अपने संग ले-ले।
मानव की पहिचान मापने के
लगते ओछे पैमाने
भरी भीड़ में नहीं लग रहे
हैं चेहरे जाने पहचाने
हैं अनभिज्ञ परस्पर जन-जन
लेकिन लगे हुए हैं मेले।
कहीं घांेसलों में रोती है
पंखहीन पंछी की ममता,
कहीं गले से गले लग रही
हंसकर समता और विषमता
कैसे चलें चरण चिन्हों पर,
डरे-डरे हम आज अकेले।