बंदरों का अखाड़ा बनता
हमारा खपरैल का छप्पर
अगल-बगल के छत पर
ऊँची कूद लगाता
सामंती षड्यंत्र सा
रोयें-रोयें काँप जाते हैं
जब बरसाती घन
यौवन पाते
गरज-गरज कर
धमका-धमका कर
टूट बरसते, हमारे
छितराये छप्परों पर
इधर बाल्टी
उधर कठौता रख
चीजों को विस्थापित करते
रात-दिन सब एक से हो जाते
टप-टप, छप-छप
क्षत-विक्षत घर
सोना, खाना सभी असम्भव
गायन, नृतन, वादन
सभी हमारे घर के अंदर...