Last modified on 6 जून 2010, at 11:38

हमारा समय / मुकेश मानस

खिड़कियाँ खटखटाई जा रही हैं
हम नहीं सुनते

दरवाज़े भड़भड़ाए जा रहे हैं
हम नहीं खुलते

लोग हर सिम्त मारे जा रहे हैं
हम नहीं उठते

इंसानियत का बरतन खाली धरा है
मरते हुए जीना
हमारे समय का
सबसे क्रूरतम मुहावरा है

रचनाकाल : 1994