हमारी कल्पना के प्रेम में, और हमारी इच्छा के प्रेम में, कितना विभेद है!
दो पत्थर तीव्र गति से आ कर एक दूसरे से टकराते हैं, तो दोनों का आकार परिवर्तित हो जाता है। किन्तु वे एक नहीं हो जाते। प्रतिक्रिया के कारण एक-दूसरे से परे हट कर फिर स्थिर हो जाते हैं।
तो फिर हमारी प्रेम की कल्पना में क्यों इस अत्यन्त ऐक्य- कैवल्य-की कामना रहती है?
बिना स्वतन्त्र अस्तित्व रखे प्रेम नहीं होता। यदि मैं अपने को तुम में खो दूँ, तो तुम से प्रेम नहीं कर सकँूगा। वह केवल प्रेम की ज्वाला से बच भागने का एक साधन है...
किन्तु ज्ञान की इस प्रखर किरण से भी अप्राप्ति का वह दुभेद्य अन्धकार कैसे मिटाऊँ?
दिल्ली जेल, 1 अगस्त, 1932