हम अपने पूर्वजों से अधिक समृद्ध और सुखी हैं-
इस बात को कैसे स्वीकार सकते हैं हम?
जब-
सुख –सुविधाओं के आधुनिकतम उपकरण
वातानुकूलित कमरों के ऐशो-आराम
गगनचुन्बी बिल्डिंगों के साजो-सामान
हमारे माथे की सिलवटों को मिटा नहीं पा रहे
फिर यह कैसे स्वीकार लें
कि हम अपने पूर्वज़ों से अधिक समृद्ध और सुखी हैं?
जब-
नैतिकता का सरे आम हो रहा है खात्मा
सिद्धातों और आदर्शों का कहीं मोल नहीं
शराफ़त और ईमानदारी महज एक मुखौटा है
एक चिर संत्रास और संशय में जी रहे हैं हम सभी
फिर यह कैसे स्वीकार लें
कि हम अपने पूर्वज़ों से अधिक समृद्ध और अउखी हैं?
अपनी आवश्यकताएं जुटाने का साधन-मात्र है समृद्धि-
इस तथ्त को पूर्वज हमारे भली-भांति जानते थे
पर हम अधिक साक्षर-उर्वर मस्तिष्क के स्वामी हैं
सो समृद्धि को ही सुख-सुकून का स्रोत मान
अपनी आत्मा तक को उस पर निछावर किया है ।
केवल मन की एक अवस्था है सुख-
इस रहस्य को पूर्वज हमारे भली-भांति समझते थे
पर हम `सभ्य लोग' बाह्य पदार्थों में सुख तलाश कर
अपने आन्तरिक गुणों को कौड़ी के मोल खोते हैं
और धन-वैभव के बीच भी मानसिक सुख से वंचित रहते हैं ।
पूर्वज हमारे शोषित थे, अवहेलित थे, दुख-कातर थे
और यही दुख कातरता एक सेतु थी
एक दुखी को दुसरे दुखी से जोड़ती थी
पर अतिरिक्त सुख-प्राप्ति की धुन में
हम अभिमानी हैं, अहंकारी हैं, स्वार्थ-प्रिय हैं
और यही स्वार्थ-प्रियता सोख रही जीवन- सुख हमारा
निरन्तर-निरन्तर देह में लगी जोंक की तरह ।