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हमेशा की तरह / हरीश भादानी

हमेशा की तरह
आज भी
उतार फेंकी है
अपने सर पर से चटाई
चुराली है
सपनों में विसूरते चेहरे से
अपनी आंख
थमक कर पीछे न हो ले
चलने की
नन्ही सी आदत
बांध न ले मुझे
तोतले गले की भैरवी

लटकाकर
कमीज की जगह अपना प्यार
दबाए पांव
मैं आया हूँ बाहर
देहरी के बीच
खड़ी है मेरी हक़ीकत
जिसकी आंखों में फैली है
मेरी सराय
भरे-भरे हाथों लौटने की
मेरी प्रतीक्षा
रुई के फोहों सी
रोटियों की गांठ
थमादी है मेरे हाथ में
शुतुरमुर्ग हुआ
चल दिया हूँ मैं
कूड़े के ढेर में से ही
अदेही सर्वव्यापी
बनाकर रखे गए
सुर्ख सवेरे की तलाश में

न तो दहकता सूर्य
और न ही
सुर्खियां बिखेरती दिशा ही
आई है मेरे सामने
गुम्बदों ताजियों का
तैरता आकाश ही गुजरा है
मेरे ऊपर से

बीमार हवा और
ज़र्द धूप से
सूज गई आंखें
जब भी फिराई है चारों ओर
लोहे के जंगल में ही
पाया है खुद को
ओर झूझने लगा हूँ
दे दी गई आग से
जो मेरी नहीं होती
जो भी बनता है
पिघलता है मुझसे
निगल जाती है सुरसा
दमाग तक झुलस देती है
पेट में भभकी अंगीठी
फेंकता हूँ
भीतर की ओर
रोटियों के साथ पानी

आज भी नहीं बनी है
मेरी यात्रा की तस्वीर
पर जंगल के जमादारों के पास
होती है मशीन
काट-छांटकर
बना लेते हैं
बहुत कुछ मुझसे

दुहरती-तिहरती रहती हैं
कर्कशा आवाजें
रेंकता है सायरन
आजाद कर देते हैं मुझे
लोहे के दांत
जेबां-जोड़-जोड़ में
भर गया होता है नमक
देखता हूँ
खास अन्दाज को
तेवर बदलते
अंधेरा खिलाए जाने के खिलाफ
ऊंचे मचान पर
करते हुए नाटक

सोचता हूँ
आज तो गड़ा ही दूं
इस खास अन्दाज के
तेवर पर
अपनी आंख
जड़लूं कान के किवाड़े
सुनूं ही नहीं
मुट्ठियों में भींचकर
अपना तनाव
बोलता चला जाऊं
बर्फ सी उछलती
आवाजों के बीच
फोड़ दूं मैं अपने
धीरज का अलाव
कहूं-नहीं दिखेगी
कांच में से
जीवित तक़ाज़ों से
किलबिलाती मेरी सराय
बनेगी हीं नहीं

हंसने की हसरत में ही
बाहर से भीतर तक
तार-तार हो गई
मेरी हक़ीक़त की
कोई तस्वीर

ऐसे बोलता ही नहीं
कोई समय
ऐसा भी नहीं होता
उसका शरीर
व्यसनी हो गए हैं हाथ
सुइयां लें
डोरे बंटें पिरायें
सियें सिये जाएं
कतरनी लो कतरनी
चलाओ चलाते ही रहें
कटे उनका बुना
यह जाल
इस सिरे से
उस सिरे तक
            
नवम्बर’ 78