हम एक हैं। हमारा प्रथम मिलन बहुत पहले हो चुका- इतना पहले कि हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। हम जन्म-जन्मान्तर के प्रणयी हैं।
फिर इतना वैषम्य क्यों? क्या इतने कल्पों में भी हम एक-दूसरे को नहीं समझ पाये?
प्रेम में तो अनन्त सहानुभूति और प्रज्ञा होती है, वह तो क्षण-भर में परस्पर भावों को समझ लेता है, फिर इतने दीर्घ मिलन के बाद भी यह अलगाव का भाव क्यों?
दिल्ली जेल, 17 जुलाई, 1932