Last modified on 20 मार्च 2017, at 12:57

हम ऐसे नगर के निवासी / तरुण

अब हम सब एक ऐसे नगर के निवासी हैं-
जिसकी जमीन के नीचे
बिछी हैं बारूद की सुरंगे-धमाकों को छाती से चिपकाये।
पग-पग पर कँटीले-जहरीले थूहर ही थूहर हैं।

नागफनी की बाड़ें लगी हैं,
काँटे तने खड़े हैं पगतलियों से लगाकर आँख की पुतलियों तक।
तेजाब से लगी आग में, धुँए में-
फण-पटकते साँप, डंक-उठाये काले रेगिस्तानी बिच्छू और छिपकलियाँ।
अजगरों के साँस-सी हवाओं में सड़ी अफीम का सत व्याप्त है।
काँच का बुरादा घुला-मिला है रक्तोष्ण पानी की
एक-एक बूँद में।

कान में आती रहती हैं, दूध-पीते बच्चों की करुण चिल्लाहटें-
किवाड़ों के बीच उनकी उँगलियों के चिंथ जाने के समय की-सी

सीत्कारें-फूत्कारें फैली हैं-
बंदूक की गोली खाये हिसहिसाते क्रुद्ध साँपों की-
जिनकी मादाएँ मार दी गई हों काम-क्रीड़ा के बीच।

फैले हों जैसे, सर्वत्र-करके ओट,
धुआँ, काँटे, बुलेट, चीख, डंक, स्फोट-
खाज, धायँ-धायँ, वार-प्रहार, चोट।

भयाक्रांत लोग है बतियाते, गुड़गुड़ाते-
जैसे, ऐंठन-मरोड़ वाली पेचिश की आँतें।
आदमियों की बस्ती, जैसे-
तूफानों-डूबे जहाजों से बहती आईं लाशें
समुद्र-तट पर धूप-वर्षा में सड़तीं।
जहाँ हो-चीलों की मस्ती, मटरगश्ती।

1975